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सावरकर वीर, नेहरू धीर और अम्बेडकर गंभीर, क्या सच में ?

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आजकल एक चर्चा बड़ी आम है, या यूं कहूं के इतिहास को कुरेदने की भरपूर मशक्कत चलती रहती है, और इस दौड़ में कोई पीछे नहीं है ना नेता और पत्रकारों का क्या ही कहें..! बहरहाल, कुछ साल पीछे जाएं तो हम पाएंगे के लोगों को एक अलग ही तरीके से अपनी चीजें मनवाने का सामान मिला था, इंटरनेट.. और 2014 के चुनाव में खासी भूमिका भी निभाई इस इंटरनेट ने.. क्या तबसे स्वतंत्रता सेनानियों की छवि धूमिल करने का चलन शुरू हुआ..?  चुनाव पहले भी होते थे, प्रतिद्वंदियों की जी भर के बुराइयां भी होती थीं पर इस तरह की नफरत नहीं होती थी जो अब के नेताओं के बीच है, मानो एक दूसरे का खून करना ही बांकी हो..!! इस डिजिटल समाज में जहां हर किसी को हर किसी से दिक्कत है, ऐसे में किसी भी सोच या विचार का लोगों में आम होना बहुत आसान बात है, क्या अब के नेता इसी बात का फायदा उठा रहे हैं..?  अपने बूते पर चुनाव ना लड़ कर इतिहास को बीच में घसीटना कहां तक उचित है, कोई भी व्यक्ति अपने वर्तमान में अच्छा ही काम करना चाहेगा, ये नहीं चाहेगा के देश के साथ बुरा किया जाए.. या मैं जिस तरह से कहना चाहती हूं, कहूं तो आप नेता अपने वर्तमान मे